Sunday, February 14, 2010

साहस और वीरता के लिए मशहूर चूरू

सोनल बालुका स्तूपों से आच्छादित राजस्थान का चूरू जिला साहस, वीरता और देशभक्ति के लिए विश्व-विख्यात रहा है। यहां के वीर जवानों ने भारत-पाक युद्ध एवं चीनी आक्रमण के समय अपने रण कौशल के प्रदर्शन से चकित करते हुए वीरता के इतिहास में अपने नाम अंकित करवाएं हैं। चूरू जिला देश के थार मरूस्थल का वह भाग है जहां बीस से एक सौ फीट ऊंचाई वाले रेतीले टीले फैले हुए हैं। यह एक समृद्ध जिला है जिसके उत्तर में हनुमानगढ, दक्षिण में सीकर, दक्षिण पूर्व में झुंझुनूं, दक्षिण-पश्चिम में नागौर तथा पश्चिम में नागौर जिले की सीमाएं हैं। इसकी पूर्वी सीमा हरियाणा प्रदेश को भी स्पर्श करती है।

आज का चूरू जिला पूर्व में बीकानेर रियासत का हिस्सा रहा। बीकानेर रियासत में 1884-85 में चार निजामतें बनाई गईंं जिनमें से सुजागनढ और रेणी चूरू जिले से संबंधित थीं। सुजानगढ निजामत के तहत सुजानगढ, सरदारशहर, रतनगढ व डूंगरगढ तहसीलें तथा रेणी निजामत में चूरू, राजगढ, भादरा और नोहर तहसीलें शामिल थीं। बाद में रेणी को भी एक तहसील बना दिया गया और 16 मार्च 1941 को रेणी निजामत का मुख्यालय हटाकर राजगढ को मुख्यालय बना दिया गया। इसी समय रेणी तहसील का नाम बदलकर तारानगर कर दिया गया। महाराजा सादुल सिंह (1943-49) के शासन काल में चूरू, राजगढ, तारानगर, सरदारशहर, रतनगढ, डूंगरगढ और सुजानगढ तहसीलों को मिलाकर चूरू मंडल का गठन किया गया। सन 1949 में बीकानेर रियासत का राजस्थान में विलय होने पर भी चूरू जिले की यही स्थिति बनी रही। बाद में सन 2000 में डूंगरगढ तहसील को बीकानेर जिले में शामिल कर दिया गया।
चूरू जिले का तारानगर कस्बा प्राचीन है। इसका पूर्व नाम रेणी था। इसकी बसावट के संबंध में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। डाललिया राजा रिणीपाल ने इसे बसाया, ऎसी मान्यता है। नगर में स्थित जैन मंदिर हजार वर्ष से भी पुराना माना जाता है। सुजानगढ की स्थापना बीकानेर महाराजा सूरत सिंह (सन 1787-1828) ने की थी और इसका नामकरण बीकानेर के 12वें शासक सुजान सिंह के नाम पर सुजानगढ किया गया।
महाराजा सरदारसिंह (सन 1851-1872) द्वारा संस्थापित सरदारशहर शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और चूरू जनपद में आयुर्वेद शिक्षा का उत्तम केंद्र है। महाराजा सरदारसिंह ने कंवरपदे में ही यहां एक गढ बनवाया था जिसमें वर्तमान में तहसील कार्यालय, उपखंड कार्यालय व न्यायालय स्थित है।
रतनगढ की स्थापना यद्यपि महाराजा सूरत िंसंह ने की थी, किंतु इसका नाम उनके उत्तराधिकारी रतनसिंह (1828-1851) पर रखा गया, जिन्होंने नगर को वर्तमान स्वरूप दिया। इस नगर में भी एक छोटा गढ है।
राजगढ की स्थापना महाराज गजसिंह ने सन 1766 में की थी। उनके पुत्र राजसिंह के नाम पर यह नगर राजगढ कहलाया, यहां भी एक छोटा गढ है।
चूरू की स्थापना का संबंध चूहरू नामक व्यक्ति से जोड़ा जाता है और संभवतः इसी आधार पर और उन्हीं के नाम पर शहर का नामकरण हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री गोविंद अग्रवाल के अनुसार चूरू सन 1620 ईस्वी से पूर्व बस चुका था। जिले का मुख्यालय चूरू विद्वानों, स्वतंत्रता सेनानियों, नगर श्रेष्ठियों, रणबांकुरों और हस्तशिल्पियों के योगदान के लिए समृद्ध व देशप्रसिद्ध है।
यहां श्री सर्वहितकारिणी सभा, लोक संस्कृति शोध संस्थान नगरश्री, श्री जैन उपाश्रय, नाथजी का धोरा, पीथाणा जोहड़ा, सेठाणी का जोहड़ा, पींजरापोल, धर्मस्तूप, सफेद घंटाघर, इंद्रमणि पार्क और मालजी का कमरा व हवेलियां दर्शनीय हैं। यहां का सुराणा पुस्तकालय भी देश प्रसिद्ध रहा है।
राज्य के उत्तर में थार रेगिस्तान में धोरों के बीच बसा चूरू अपनी कलात्मक हवेलियों, मंदिरों की बेजोड़ स्थापत्य कला, हस्तकला एवं वैविध्यपूर्ण संस्कृति के कारण आरंभ से ही अपनी विशिष्ट पहचान रखता आया है। दूर तक रेत के धोरों का संगीत यहां की सौंधी मिट्टी की महक से तो रूबरू करवाता ही है, यहां के वीरों की शौर्य, बहादुरी और साहस की गाथाएं भी अपने में समाहित किए हुए है।
कलात्मक हवेलियों, धार्मिक आस्था के पौराणिक मंदिरों के साथ ही लोक कला एवं संस्कृति की अनूठी परंपराओं के संवाहक चूरू जिले का इतिहास भी कम रोचक नहीं रहा है। कहते हैं, हजारों वर्ष पहले इस भू-भाग पर समुद्र हुआ करता था। भूगर्भिक परिवर्तनों के कारण ही बाद में यह भू-भाग विशाल मरूस्थल बन गया। पहले समुद्र होने की वजह से ही शायद आज भी यहां का पानी खारा है। पौराणिक इतिहास के संदर्भ में बात करें तो ऋग्वेद के सातवें मंडल के अनुसार लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी इस क्षेत्र के अत्यंत निकट से ही बहती थी। आज थार मरूस्थल में चूरू जिला ऎसा क्षेत्र है जहां सर्दी में अत्यधिक ठंड तो गर्मी में अत्यधिक गर्मी पड़ती है। ऎसी विषम परिस्थतियों के बाद भी यहां के लोग जीवट वाले और जीवन के प्रति उत्साही हैं।
साहित्य और कला की उर्वरा भूमि चूरू में प्रख्यात गीतकार पं. भरत व्यास, संगीतकार खेमचंद प्रकाश, शंभू सेन, जमाल सेन, बसंत प्रकाश जैसे अद्भुत प्रतिभा वाले लोगों ने जन्म लेकर जिले का नाम दुनियाभर में रोशन किया है।
विश्व प्रसिद्ध ताल छापर कृष्ण मृग अभयारण्य, सालासर का हनुमान जी का मंदिर, गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा, जीणमाता एवं हर्षनाथ भैरव की जन्मस्थली घांघू, साहवा का गुरुद्वारा आदि ऎतिहासिक, सांस्कृतिक व पौराणिक महत्व के स्थलों की दर्शनीय भूमि चूरू ने गत वर्षों में काष्ठकला के क्षेत्र में भी विश्व मानचित्र पर अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है।

Sunday, November 22, 2009

मालजी का कमरा बनेगा थ्री स्टार होटल

चूरू। हेरिटेज सिटी की शान ऎतिहासिक मालजी का कमरा अपने मूल स्वरूप में निखरने के बाद जल्द ही थ्री स्टार होटल के रूप में नजर आएगा।

चूरू की इस विरासत के मूल स्वरूप को बहाल रखने की दिशा में प्रयास शुरू हो गए हैं। टोपाज इन्फ्राडेन प्रा.लि. की ओर से रविवार को चूरू की प्रसिद्ध धरोहर के जीर्णोद्धार का कार्य शुरू किया गया। कंपनी के निदेशक आनंद बालाण ने बताया कि मालजी के कमरे के हेरिटेज स्वरूप को बहाल करने में कोलकाता का केएमएसआर कोठारी ट्रस्ट सहयोग कर रहा है।

बालाण ने बताया कि चूरू के प्रति पर्यटकों के आकर्षण को बरकरार रखने के लिए मालजी के कमरे को हेरिटेज होटल में परिवर्तित किया जाना प्रस्तावित है। उन्होंने बताया कि रेगिस्तान के शहर चूरू में पर्यटकों को लुभाने की अपार क्षमता है लेकिन पर्यटकों के ठहरने की व्यवस्था का अभाव इसमें सबसे बडी बाधा बना हुआ है।

कोठारी ट्रस्ट के आरएम कोठारी ने बताया कि मालजी का कमरा के मुख्य भवन तथा परिसर में क्षतिग्रस्त हो चुकी कलात्मक रेलिंग तथा मूर्तियों को फिर से तैयार करने के लिए हेरिटेज संपत्ति के रखरखाव में दक्ष कारीगरों को दूसरे शहरों से चूरू बुलाया जाएगा। उन्होंने बताया कि जीर्णोद्धार का कार्य शुरू किया जा चुका है। उन्होंने प्रशासन से भी इस कार्य में सहयोग की अपेक्षा की।

गौरतलब है कि पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण मालजी के कमरे में जिला कलक्ट्रेट व अन्य प्रशासनिक कार्यालय रह चुके हैं। उत्कृष्ट भवन निर्माण कला के कारण पर्यटक आज भी चूरू दर्शन के चलते मालजी के कमरे को निहारना
नहीं भूलते।

Friday, November 6, 2009

लोकदेवी जीण और हर्ष की जन्मभूमि घांघू

इतिहास संजोये है घांघू


चूरू से मलसीसर और टमकोर जाने वाली निजी बसों से घांघू बस स्टॉप पर उतर कर शायद ही किसी को यह महसूस हो कि महज ६००-७०० घरों की आबादी वाला यह गांव जिला मुख्यालय चूरू और जयपुर जैसे महानगर से भी पहले का सैकड़ों वर्षों का इतिहास अपने भीतर समेटे हुए है। गांव के संस्थापक राजा घंघरान की बेटी लोकदेवी जीण और पुत्र हर्ष के अद्भुत स्नेह की कहानी भारतीय फिल्म नगरी बॉलीवुड के फिल्मकारों को भी आकर्षित कर चुकी है।


इतिहासकारों की नजर से


एक हजार से भी अधिक साल पुराने इस गांव के सुनहरे अतीत पर यूं तो अनेक इतिहासकारों ने अपनी कलम चलाई है लेकिन इनमें कर्नल टॉड, बांकीदास, ठाकुर हरनामसिंह, नैणसी, डॉ दशरथ शर्मा, गोविंद अग्रवाल के नाम खासतौर पर शामिल है। क्याम खां रासो के मुताबिक, चाहुवान के चारों पुत्रों मुनि, अरिमुनि, जैपाल और मानिक में से मानिक के कुल में सुप्रसिद्ध चौहान सम्राट पृथ्वीराज पैदा हुआ जबकि मुनि के वंश में भोपालराय, कलहलंग के बाद घंघरान पैदा हुआ जिसने बाद में घांघू की स्थापना की। गोविंद अग्रवाल कृत चूरू मंडल का शोधपूर्ण इतिहास के मुताबिक, एक बार राजा घंघरान शिकार खेलने गया। राजा मृग का पीछा करते हुए लौहगिरि( वर्तमान लोहार्गल) तक जा पहुंचा जहां मृग अदृश्य हो गया। राजा वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा। निकट ही एक सरोवर था जिसमे स्नान करने के लिए चार सुंदरियां आईं। वस्त्रा उतारकर उन्होंने सरोवर में प्रवेश किया। राजा ने उनके वस्त्रा उठा लिये और इसी शर्त पर लौटाए कि उन चारों में से किसी एक को राजा के साथ विवाह करना होगा। मजबूरन, सबसे छोटी ने विवाह की स्वीकृति दे दी। तब राजा ने उसके साथ विवाह किया।


जीण की जन्मभूमि

राजा को अपनी पहली रानी से दो पुत्र हर्ष व हरकरण तथा एक पुत्री जीण प्राप्त हुई। ज्येष्ठ पुत्रा होने के नाते हालांकि हर्ष ही राज्य का उत्तराधिकारी था लेकिन नई रानी के रूप में आसक्त राजा ने उससे उत्पन्न पुत्रा कन्ह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। संभवत: इन्हीं उपेक्षाओं ने हर्ष और जीण के मन में वैराग्य को जन्म दिया। दोनों ने घर से निकलकर सीकर के निकट तपस्या की और आज दोनों लोकदेव रूप में जन-जन में पूज्य हैं।


गोगाजी व कायमखां

इसी प्रकार लोकदेव गोगाजी और क्यामखानी समाज के संस्थापक कायम खां भी घांघू से संबंधित हैं। घंघरान के ही वंश में आगे चलकर अमरा के पुत्रा जेवर के घर लोकदेवता गोगाजी का जन्म जेवर की तत्कालीन राजधानी ददरेवा में हुआ। बाद में गोगाजी ददरेवा के राजा बने। गोगाजी ने विदेशी आक्रांता महमूद गजनवी के खिलाफ लड़ते हुए अपने पुत्रों , संबंधियों और सैनिकों सहित वीर गति प्राप्त की। इसी वंश के राजा मोटेराव के समय ददरेवा पर फिरोज तुगलक का आक्रमण हुआ और उसने मोटेराय के चार पुत्रों में से तीन को जबरन मुसलमान बना लिया। मोटेराय के सबसे बड़े बेटे के नाम करमचंद था जिसका धर्म परिवर्तन पर कायम खां रखा गया और कायम खां के वंशज कायमखानी कहलाए।


ऐतिहासिक गढ़ और छतरी

हालांकि हजारों वर्षों पूर्व के सुनहरे अतीत के चिन्ह तो घांघू में कहीं मौजूद नजर नहीं आते लेकिन लगभग ३५० साल पहले बना ऐतिहासिक गढ और सुंदर दास जी की छतरी आज भी गांव में मौजूद है। गांव में जीणमाता, हनुमानजी, करणीमाता, कामाख्या देवी, गोगाजी, शीतला माता सहित ७-८ देवी देवताओं के मंदिर हैं।


वर्तमान में घांघू

एक धर्मशाला तथा जलदाय विभाग के पाँच कुंए हैं जिनसे घर-घर जलापूर्ति होती है। पिछले वर्षों में जलस्तर काफी गिरा है और पानी की सबसे बड़ी समस्या इसका खारापन है। स्थानीय राजकीय संस्थानों में एक वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, एक बालिका माध्यमिक विद्यालय, एक उच्च प्राथमिक विद्यालय, आंगनबाड़ी केंद्र, पशु चिकित्सा केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, दूरभाष केन्द्र , डाकघर, दो बैंक, ३३ के वी विद्युत ग्रिड सब स्टेशन हैं। तीन निजी स्कूलें भी हैं। ग्राम पंचायत घांघू के अंतर्गत घांघू, बास जैसे का, दांदू व बास जसवंतपुरा आते हैं। वर्ष २००१ की जनगणना के मुताबिक ग्राम की जनसंख्या ३ हजार ६५४ है। श्रीमती नाथीदेवी गांव की सरपंच हैं। निजी बसें एवं साधन पर्याप्त हैं लेकिन लोगों को राज्य पथ परिवहन निगम की बसें नहीं चलने का मलाल है।


प्रतिष्ठित व्यक्ति

ग्राम के सर्वाधिक प्रतिष्ठित व्यक्तियों में पूर्व विधायक सुरेंद्र सिंह राठौड़, बंशीधर शर्मा, डीजी जेल पश्चिमी बंगाल, मो। हनीफ, डॉ मुमताज अली, एथलीट बैंकर्स हरफूलसिंह राहड़, पवन अग्रवाल आदि हैं। राजनीतिक रूप से श्री महावीर सिंह नेहरा, ग्राम सेवा सहकारी समिति अध्यक्ष श्री परमेश्वर लाल दर्जी, लिखमाराम मेघवाल, जयप्रकाश शर्मा, चंद्राराम गुरी आदि सक्रिय हैं। बंशीधर शर्मा द्वारा पश्चिमी बंगाल में किए गए जेल सुधारों को विश्वस्तर पर सराहना मिली है। यहां के लक्खूसिंह राठौड़ श्रीलंका भेजी गई शांति सेना में शहीद होकर नाम अमर कर चुके हैं।


सांप्रदायिक सद्भाव

ग्राम की हिंदु मुस्लिम आबादी में अधिक अंतर नहीं फिर भी यहां लोगों के सांप्रदायिक सद्भाव की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। गांव में ६०-७० दुकानें हैं, जिनसे रोजमर्रा के सामान की पूर्ति हो जाती है। ग्राम में शिक्षा का स्तर काफी बढ़ा है और लोग इस बात के लिए सचेष्ट होने लगे हैं कि उनके बच्चों को पढने के लिए अच्छा वातावरण और विद्यालय मिले। गत वर्षों में अकाल ने लोगों की कमर तोड़ी है लेकिन ग्रामीण सुखद भविष्य के लिए आशान्वित नजर आते हैं। गांव कई रूटों से सड़क से जुड़ा हुआ है लेकिन ग्रामीणों का मानना है कि यदि दक्षिण में बिसाऊ तक सड़क और बन जाए तो लोगों को खासी सुविधाएं मिल जाएं।
बेहतर भविष्य की आशाएं ग्राम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी जय जीण माता फिल्म और धारावाहिक के निर्माण ने गांव को नई पहचान दी है। बहरहाल, कुछेक छुटपुट चीजों को दरकिनार कर दिया जाए तो गांव काफी अच्छी स्थिति में है। गांव का इतिहास और विकास दोनों ही इसकी पहचान हैं और वर्तमान स्थिति को देखते हुए भविष्य भी उज्जवल नजर आता है।


पुरातात्विक महत्व

दसवीं शताब्दी में बसा गांव घांघू ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इसी काल के हर्ष, रैवासा और जीणमाता अपने पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के लिए खासे प्रसिद्ध हैं। हर्षनाथ से मिली पुरातात्विक सामग्री इतिहासवेत्ताओं के लिए खासी महत्वपूर्ण है। हर्ष और जीणमाता गांव से तो घांघू एकदम सीधे-सीधे संबंधित है। इसलिए यहां भी अगर पुरातत्वविदों की नजर पड़े और खुदाई की जाए तो संभव है कि कम से कम दसवीं शताब्दी के इतिहास से जुड़े काफी चीजें यहां मिल सकती हैं। इसी दृष्टि से हुई उपेक्षा के चलते गांव का समूचा गौरव मानो दफन होकर रह गया है। ग्रामीणों का मानना है कि सरकार को अपनी हैरिटेज योजनाओं में घांघू गांव को शामिल करना चाहिए तथा अगर यहां पुरातात्विक दृष्टिकोण से खुदाई हो जाए तो निश्चित रूप से दसवीं शताब्दी और संभवत: उससे भी पुराने इतिहास में कुछ नए पन्ने जुड़ सकते हैं।

Monday, November 2, 2009

वीर गोगाजी की जन्मभूमि - ददरेवा

हम आपको ले चलते हैं सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान ददरेवा, जो राजस्थान के चुरू जिले की राजगढ़ तहसील में स्थित है। यहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं । नाथ परम्परा के साधुओं के ‍लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायम खानी मुस्लिम समाज के लोग उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्‍था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास ददरेवा में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्‍था टेककर मन्नत माँगते हैं। हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं।''गोगा पीर'' व जाहरवीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं। प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि ''गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा'' वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। इतिहासकारों के अनुसार गोगादेव अपने बेटों सहित मेहमूद गजनबी के आक्रमण के समय सतलुज के मार्ग की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। हवाई अड्डा लगभग 250 किमी पर स्थित है।
रेल मार्ग:- जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर तक ट्रेन द्वारा जाया जा सकता है।सड़क मार्ग:- जयपुर देश के सभी राष्ट्रीय मार्ग से जुड़ा हुआ है। जयपुर से सादलपुर और सादलपुर से 15 किमी दूर स्थित गोगाजी के जन्मस्थान तक बस या टैक्सी से पहुँचा जा सकता है।

Tuesday, September 15, 2009

स्वागत

खूबसूरत चूरू में आपका स्वागत है।
खुश हों कि आपने आज चूरू के बारे में सोचा है।