आज का चूरू जिला पूर्व में बीकानेर रियासत का हिस्सा रहा। बीकानेर रियासत में 1884-85 में चार निजामतें बनाई गईंं जिनमें से सुजागनढ और रेणी चूरू जिले से संबंधित थीं। सुजानगढ निजामत के तहत सुजानगढ, सरदारशहर, रतनगढ व डूंगरगढ तहसीलें तथा रेणी निजामत में चूरू, राजगढ, भादरा और नोहर तहसीलें शामिल थीं। बाद में रेणी को भी एक तहसील बना दिया गया और 16 मार्च 1941 को रेणी निजामत का मुख्यालय हटाकर राजगढ को मुख्यालय बना दिया गया। इसी समय रेणी तहसील का नाम बदलकर तारानगर कर दिया गया। महाराजा सादुल सिंह (1943-49) के शासन काल में चूरू, राजगढ, तारानगर, सरदारशहर, रतनगढ, डूंगरगढ और सुजानगढ तहसीलों को मिलाकर चूरू मंडल का गठन किया गया। सन 1949 में बीकानेर रियासत का राजस्थान में विलय होने पर भी चूरू जिले की यही स्थिति बनी रही। बाद में सन 2000 में डूंगरगढ तहसील को बीकानेर जिले में शामिल कर दिया गया।
चूरू जिले का तारानगर कस्बा प्राचीन है। इसका पूर्व नाम रेणी था। इसकी बसावट के संबंध में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। डाललिया राजा रिणीपाल ने इसे बसाया, ऎसी मान्यता है। नगर में स्थित जैन मंदिर हजार वर्ष से भी पुराना माना जाता है। सुजानगढ की स्थापना बीकानेर महाराजा सूरत सिंह (सन 1787-1828) ने की थी और इसका नामकरण बीकानेर के 12वें शासक सुजान सिंह के नाम पर सुजानगढ किया गया।
महाराजा सरदारसिंह (सन 1851-1872) द्वारा संस्थापित सरदारशहर शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और चूरू जनपद में आयुर्वेद शिक्षा का उत्तम केंद्र है। महाराजा सरदारसिंह ने कंवरपदे में ही यहां एक गढ बनवाया था जिसमें वर्तमान में तहसील कार्यालय, उपखंड कार्यालय व न्यायालय स्थित है।
रतनगढ की स्थापना यद्यपि महाराजा सूरत िंसंह ने की थी, किंतु इसका नाम उनके उत्तराधिकारी रतनसिंह (1828-1851) पर रखा गया, जिन्होंने नगर को वर्तमान स्वरूप दिया। इस नगर में भी एक छोटा गढ है।
राजगढ की स्थापना महाराज गजसिंह ने सन 1766 में की थी। उनके पुत्र राजसिंह के नाम पर यह नगर राजगढ कहलाया, यहां भी एक छोटा गढ है।
चूरू की स्थापना का संबंध चूहरू नामक व्यक्ति से जोड़ा जाता है और संभवतः इसी आधार पर और उन्हीं के नाम पर शहर का नामकरण हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री गोविंद अग्रवाल के अनुसार चूरू सन 1620 ईस्वी से पूर्व बस चुका था। जिले का मुख्यालय चूरू विद्वानों, स्वतंत्रता सेनानियों, नगर श्रेष्ठियों, रणबांकुरों और हस्तशिल्पियों के योगदान के लिए समृद्ध व देशप्रसिद्ध है।
यहां श्री सर्वहितकारिणी सभा, लोक संस्कृति शोध संस्थान नगरश्री, श्री जैन उपाश्रय, नाथजी का धोरा, पीथाणा जोहड़ा, सेठाणी का जोहड़ा, पींजरापोल, धर्मस्तूप, सफेद घंटाघर, इंद्रमणि पार्क और मालजी का कमरा व हवेलियां दर्शनीय हैं। यहां का सुराणा पुस्तकालय भी देश प्रसिद्ध रहा है।
राज्य के उत्तर में थार रेगिस्तान में धोरों के बीच बसा चूरू अपनी कलात्मक हवेलियों, मंदिरों की बेजोड़ स्थापत्य कला, हस्तकला एवं वैविध्यपूर्ण संस्कृति के कारण आरंभ से ही अपनी विशिष्ट पहचान रखता आया है। दूर तक रेत के धोरों का संगीत यहां की सौंधी मिट्टी की महक से तो रूबरू करवाता ही है, यहां के वीरों की शौर्य, बहादुरी और साहस की गाथाएं भी अपने में समाहित किए हुए है।
कलात्मक हवेलियों, धार्मिक आस्था के पौराणिक मंदिरों के साथ ही लोक कला एवं संस्कृति की अनूठी परंपराओं के संवाहक चूरू जिले का इतिहास भी कम रोचक नहीं रहा है। कहते हैं, हजारों वर्ष पहले इस भू-भाग पर समुद्र हुआ करता था। भूगर्भिक परिवर्तनों के कारण ही बाद में यह भू-भाग विशाल मरूस्थल बन गया। पहले समुद्र होने की वजह से ही शायद आज भी यहां का पानी खारा है। पौराणिक इतिहास के संदर्भ में बात करें तो ऋग्वेद के सातवें मंडल के अनुसार लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी इस क्षेत्र के अत्यंत निकट से ही बहती थी। आज थार मरूस्थल में चूरू जिला ऎसा क्षेत्र है जहां सर्दी में अत्यधिक ठंड तो गर्मी में अत्यधिक गर्मी पड़ती है। ऎसी विषम परिस्थतियों के बाद भी यहां के लोग जीवट वाले और जीवन के प्रति उत्साही हैं।
साहित्य और कला की उर्वरा भूमि चूरू में प्रख्यात गीतकार पं. भरत व्यास, संगीतकार खेमचंद प्रकाश, शंभू सेन, जमाल सेन, बसंत प्रकाश जैसे अद्भुत प्रतिभा वाले लोगों ने जन्म लेकर जिले का नाम दुनियाभर में रोशन किया है।
विश्व प्रसिद्ध ताल छापर कृष्ण मृग अभयारण्य, सालासर का हनुमान जी का मंदिर, गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा, जीणमाता एवं हर्षनाथ भैरव की जन्मस्थली घांघू, साहवा का गुरुद्वारा आदि ऎतिहासिक, सांस्कृतिक व पौराणिक महत्व के स्थलों की दर्शनीय भूमि चूरू ने गत वर्षों में काष्ठकला के क्षेत्र में भी विश्व मानचित्र पर अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है।